हर आहट, वो सरसराहट लगती है,
जैसे डाल गया हो डाकिया; चिट्ठी
दरवाजे के नीचे से.
अब, हर आहट निराश करती है.
हर महीने टुकड़ों में मिलने आती रही तुम
देती दस्तक सरसराहटों से .
सारी सरसराहटों से पूरी आहट कभी ना बना सके मै.
तुम्हारे शब्दों से बिम्ब उकेरता मै,
तुम्हे देख पाने के लिए…कागज पर कूंची फिराना जरूरी होता जा रहा है.
कूंची जितनी यानी उमर तुम्हारी. तुम शब्दों में, तुम कूंची में. मुझमे तुम कितनी हो..? तुम में मै कहाँ हूँ….?
Posted by विनोद कुमार पांडेय on अक्टूबर 21, 2009 at 7:57 पूर्वाह्न
बेहतरीन अभिव्यक्ति…सुंदर भाव..कविता अच्छी लगी..धन्यवाद!!
Posted by Khushdeep Sehgal on अक्टूबर 21, 2009 at 8:43 पूर्वाह्न
ये जो ई-मेल,एसएमएस की आदत आम हो गई…
तौबा-तौबा चिट्ठियों की हालत यूंही तमाम हो गई…
जय हिंद…
Posted by meenukhare on अक्टूबर 21, 2009 at 9:20 पूर्वाह्न
बहुत ही बढ़िया रचना. बधाई.
Posted by Alpana Verma on अक्टूबर 21, 2009 at 9:45 पूर्वाह्न
bahut gaharayi liye hai kavita..
jaise ki-
‘chah kar jinhen bhool nahin pate hain,
aur har aahat par chaunk jate hain..’
Posted by shreesh k. pathak on अक्टूबर 21, 2009 at 9:53 पूर्वाह्न
अल्पना जी, शुक्रिया हौसला आफजाई के लिए…
Posted by Dr Anurag on अक्टूबर 21, 2009 at 1:05 अपराह्न
बहुत खूबसूरत…….सुपर्ब मेन
Posted by vani geet on अक्टूबर 22, 2009 at 5:06 पूर्वाह्न
कूंची जितनी यानी उमर तुम्हारी. तुम शब्दों में, तुम कूंची में. मुझमे तुम कितनी हो..? तुम में मै कहाँ हूँ….?
गहरे अनुत्तरित प्रश्न ….बहुत सुन्दर …