“…मुझमे तुम कितनी हो..?”


हर आहट, वो सरसराहट लगती है,

जैसे डाल गया हो डाकिया; चिट्ठी

दरवाजे के नीचे से.

अब, हर आहट निराश करती है.

हर महीने टुकड़ों में मिलने आती रही तुम

देती दस्तक सरसराहटों से .


सारी सरसराहटों से पूरी आहट कभी ना बना सके मै.


तुम्हारे शब्दों से बिम्ब उकेरता मै,

तुम्हे देख पाने के लिए…कागज पर कूंची फिराना जरूरी होता जा रहा है.


कूंची जितनी यानी उमर तुम्हारी. तुम शब्दों में, तुम कूंची में. मुझमे तुम कितनी हो..? तुम में मै कहाँ हूँ….?

7 responses to this post.

  1. बेहतरीन अभिव्यक्ति…सुंदर भाव..कविता अच्छी लगी..धन्यवाद!!

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  2. ये जो ई-मेल,एसएमएस की आदत आम हो गई…
    तौबा-तौबा चिट्ठियों की हालत यूंही तमाम हो गई…

    जय हिंद…

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  3. बहुत ही बढ़िया रचना. बधाई.

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  4. bahut gaharayi liye hai kavita..

    jaise ki-
    ‘chah kar jinhen bhool nahin pate hain,
    aur har aahat par chaunk jate hain..’

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  5. बहुत खूबसूरत…….सुपर्ब मेन

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  6. कूंची जितनी यानी उमर तुम्हारी. तुम शब्दों में, तुम कूंची में. मुझमे तुम कितनी हो..? तुम में मै कहाँ हूँ….?
    गहरे अनुत्तरित प्रश्न ….बहुत सुन्दर …

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